Wednesday, June 17, 2009

कार्टूनिस्ट

प्रतिभावान कार्टूनिस्टों का भविष्य सुनहरा है
कार्टूनिस्ट काक कहिन


कार्टूनिस्ट काक से कार्टूनिस्ट टी.सी. चन्दर की बातचीत

एक कार्टूनिस्ट होने के नाते कार्टून को आप कितना महत्वपूर्ण मानते है?
अगर आप अपनी चौबीस घंटों की दिनचर्या की वीडियो रिकॉर्डिंग करके रख दें। उसे कुछ समय बीतने के बाद आप देखें तो निश्चय ही आपको यह लगेगा कि आप हर क्षण को एक कार्टून की तरह ही जिए। आपकी हर भाव-भंगिमा, अभिव्यक्ति, विभिन्न क्रियाकलाप आदि निरर्थक ही नहीं थे अपितु उनमें से अधिकांश हास्यास्पद ही थे। आपकी गम्भीरता, प्रसन्नता, रुदन, क्रोध, खीझ, उदासी, आध्यात्मिकता, औरों के साथ आपका व्यवहार, आदि एक-एक कर आपके सामने आयेंगे और आपके व्यक्तित्व का मखौल उड़ाते दिखेंगे। जब सारी दिनचर्या ही कार्टूनी गतिविधियों से भरी हो तो कार्टून का अलग से महत्व खोजना बेमानी है। महत्व तो आयी-गयी चीज का होता है। अगर कार्टून बनाकर जीवन के क्रियाकलापों को कागज पर उतार सकें तो यह कार्य जीवन की जीवन्तता का प्रतीक बन जाता है। जीवन को देखने-संवारने का जितना काम कार्टून कला के माध्यम से हो सकता है उतना किसी और माध्यम से हो ही नहीं सकता।

कार्टून बनाने की प्रेरणा कैसे मिली?
बड़ा परिवार, पिता की बैठक में विभिन्न प्रकार के लोगों का आना-जाना, रिश्तों की विविधता और विस्तार, हर छोटे-बड़े के बीच परस्पर चलने वाले हास्य-व्यंग्य के प्रसंगों में कार्टून का बोध होता रहता था। अगर मामा के यहां गये तो पूरी बस्ती के बीच मामा-भांजे का रिश्ता कायम हो जाता था। भाई की ससुराल, अपनी ससुराल होती थी। साली-साले, सलहज, देवर, ननद, भाभी-इन सबके बीच मर्यादा को बरकरार रखते हुए कुछ भी कह लेने की छूट होती थी। मामा-मामी, बुआ-फूफा, चाचा-चाची आदि भी अपरोक्ष रूप से कटाक्ष करते ही थे, पूरे गांव-समाज का व्यवहार भी अपनत्व भरा खुलापन लिए होता था। लिहाजा कला की कॉपी में कार्टूनी आकृतियां बनाकर स्कूल में गुरूजी का ‘गुड’ पा लेने से कहीं कार्टून बनाने की शुरूआत हो गयी। पहला कार्टून एक अल्पजीवी दैनिक में छपा लेकिन वास्तव में शुभारम्भ कानपुर से प्रकाशित होने वाले लोकप्रिय अखबार दैनिक जागरण से हुआ।

अब कार्टूनिंग की क्या स्थिति है?
दरअसल सन् 1983 में जब मैं जनसत्ता में पहुंचा तो उस समय कार्टूनिंग बुझ-सी रही थी। आर.के. लक्ष्मण के कार्टूनों में भी वह बात नहीं आ पा रही थी। सुधीर दर कभी छपते थे, कभी नहीं। यहां तक कि कार्टून पहले पन्ने की जगह अन्दर के पन्नों पर छपने लगे थे। राजेन्द्र पुरी के कार्टूनों को हर अखबार छापने की जुर्रत नहीं करता था। अबू अब्राहम भी दिक्कत महसूस कर रहे थे। ’शंकर्स’ वीकली’ पहले ही बन्द हो चुकी थी। लिहाजा जब मैंने जनसत्ता में कार्टून बनाना शुरू किया तो हिन्दी-अंग्रेजी पत्रकारिता में अनुभव किया जाने लगा कि कार्टून के माध्यम से बहुत कुछ कहा जा सकता है और वह भी बिना कोई खतरा मोल लिए। जब कि सम्पादकीय, लेखों या रिपोर्टों के माध्यम से उतना नहीं कहा जा सकता। जनसत्ता के कार्टूनों का जिक्र होता तो हिन्दी के अखबार और कार्टूनों का वर्चस्व उजागर होता। तब अंग्रेजी अखबारों में कार्टूनों की फिर से तलाश शुरू हुई और हिन्दी अखबारों में शुरूआत। लगभग हर छोटे-बड़े हिन्दी अखबार में कार्टून को स्थान मिलने लगा। अनेक नये कार्टूनिस्ट सामने आये। पर संयोग, मेरे छपे कार्टूनों का तीखापन मेरी पहचान बनता गया। मेरे रिटायर होने के बाद ‘कार्टून’ के झंझट से मुक्ति पाने के लिए फिर अखबार सक्रिय हो गये। आज कैरीकेचर और कार्टूनी रेखांकन बनाने वालों की एक अच्छी पौध पनपी है पर देशकाल को कार्टून के माध्यम से प्रभावित करने वाली परम्परा फिर लुप्तप्राय होती जा रही है या यूं कहें कि दबा दी गयी है। कार्टून अन्दर के पन्नों पर पहुंचा दिया गया है। यह स्थिति अच्छी नहीं है। समाचार पत्र-पत्रिकाओं के मालिकों और सम्पादकों को कार्टून की लोकप्रियता और प्रभावशाली भूमिका को स्वीकार करते हुए उसे पर्याप्त महत्व देना ही चाहिए। मुझे आशा है कि स्थिति फिर बदलेगी।

कार्टूनों की सार्थकता को लेकर आप क्या कहेंगे?

राजनीतिक कार्टून ही सबकुछ नहीं हैं-वैसे जब तक बेबाक और सार्थक कार्टून जो राजनीतिक गतिविधियों को सही परिप्रेक्ष्य में लाने में सक्षम न हों तब तक राजनीतिक कार्टूनों की को प्रासंगिकता भी नहीं है। जीवन को पूर्णता के साथ कार्टून के माध्यम से देखा जा सकता है, इसके अलावा और रास्ते भी खुलते हैं। प्रचार-प्रसार, प्रेरक संदेश, शुष्क पाठ्य सामग्री में एकरसता तोड़ने और समझने में सहायक कार्टून, कार्यालयों, अस्पतालों, रेलवे स्टेशनों, बैकों, सेना, सार्वजनिक स्थानों में ही नहीं जहां नजर जाती है वहां कार्टून अपनी प्रभावशाली भूमिका निभा सकते हैं। बस सवाल उनके उपयोग के लिए मन बनाने का है। कार्टून समाज की प्रगति और जीवन्तता को दर्शाते हैं। अच्छे कार्टून उस भाषा और समाज को दर्पण दिखाने का काम करते हैं और उसकी प्रगति भी बताते हैं।

नये कार्टूनिस्टों के लिए आमदनी की दृष्टि से यह क्षेत्र कैसा है?
मौजूदा हालात में अखबार ही कार्टूनों के प्रस्तुतीकरण का एकमात्र सही माध्यम हैं और माध्यम भी अब अपना रूप बदल चुका है यानी कार्टून के लिए नकारात्मक भूमिका तैयार है। इससे कार्टूनिस्ट की भूमिका भी गौण हो चुकी है। इस तरह बहुत ज्यादा आमदनी का दौर अभी भी शुरू नहीं हुआ है पर कार्टूनों की उपयोगिता का दायरा अवश्य बढ़ा है, अनेक पत्र-पत्रिकाएं अब भी महत्व के साथ कार्टून छाप रही हैं। खास तौर पर विजुअल मीडिया में नये दरवाजे खुले हैं। कम्प्यूटर का उपयोग बढ़ा है। नयी तकनीक ने नयी राहें खोली हैं। एनीमेशन का विशाल संसार हमारे सामने है। कम्प्यूटर और एनीमेशन की इस नयी तकनीक को जानने-समझने-अपनाने के प्रति नयी पीढ़ी आकर्षित हुई है। हमारे देश में एनीमेशन का कार्य निरन्तर विस्तार पा रहा है। अगर जीवन को गहराई जानने वाले और नयी तकनीक में पारंगत नये कार्टूनिस्टों की पौध लगायी जाए तो विदेशी मुद्रा का अकूत भंडार भारत की झोली में आ सकता है। हालांकि इस ओर काफी प्रयास चल भी रहे हैं। प्रतिभावान कार्टूनिस्टों के लिए सुनहरा भविष्य इंतजार कर रहा है। एक अच्छे कार्टूनिस्ट के लिए जन्मजात प्रतिभा और रुचि अधिक उपयोगी सिद्ध होती है। पर किसी में कला और कार्टून कला के प्रति थोड़ी रुचि हो तो भी उसे सही प्रशिक्षण और अभ्यास से निपुण बनाया जा सकता है। नये कार्टूनिस्ट जीवन को निकट से बारीकी से देखें, समझें और यह देखें कि कार्टून के माध्यम से क्या कुछ नया जोड़ सकते हैं, उसके प्रति ईमानदारी से प्रयास करें गुदगुदाने के साथ-साथ व्यक्तित्व में निखार लाने को प्रेरित करने वाले कार्टूनों की हर कदम पर सदा जरूरत बनी रहती है।

कार्टूनिस्ट होते तो?
कार्टूनिस्ट न होते तो अच्छी-खासी सरकारी नौकरी करते हुए रिटायर होते। पर नहीं, मेरे लिए यह कैरियर का सवाल नहीं था, बल्कि कैरियर के रूप में कार्टूनिंग को अपनाना एक पागलपन-सा लगता था। मैं कार्टूनिंग को पूरी तरह अंगीकार करने के मामले में बीस साल इंतजार करता रहा। दरअसल मेरा जीवन कहीं विकराल विडम्बनाओं से घिर गया था और लग रहा था जैसे मेरे लिए जीवन का कोई अर्थ ही न हो। जब दैनिक जागरण के संपादक स्वर्गीय नरेन्द्र मोहन ने 6 जुलाई 1967 को मेरा बनाया पहला कार्टून छापा तो अनायास ही मैं अपना जीवन नहीं, कार्टूनिंग जीने लगा। बकौल लखनऊ के तेजतर्रार पत्रकार विनोद शुक्ल के, अगर जीवन में सब कुछ ठीक-ठाक होता तो आप काक न होते।
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कार्टूनिस्ट चन्दर

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